Thursday, August 23, 2012

How to deal with communalism in India?



August 24 will have completed four years of Kandhamal riots. Fun way riots are raised once again think of him in these four years we have learned nothing. Recent Bareilly, Agra or off indicates that the incidence of the former. We probably still fail to understand that secularism is the same no matter how he ultimately national. The followers of a religion to stand against the followers of other religions and works of digging the roots of the unity of the nation. 1947 partition of India was a living example of the communal inertia, which put the nation cut into three distinct parts.
Unfortunately it will only say that communalism in shaping modern India's religious history has played an important role. British Raj's divide and rule 'policy on the basis of religion, the country was divided into two states - the Muslim-majority Pakistan (which currently includes the Islamic Pakistan and Bangladesh) split time such a large-scale population The swap (1 crore 20 lakh) which had been grueling and mass destruction. Perhaps the time of partition in a country that did not have mass destruction. The Republic of India is a secular religion and the government does not officially recognized
इसके बावजूद भारत विभाजन ने पंजाब, बंगाल, दिल्ली तथा देश के कई अन्य हिस्सों में हिन्दूओं, मुस्लमानों तथा सिखों के बीच हुए दंगों और मारकाट के कारण सांप्रदायिता का ऐसा बीज बो दिया जिसे पनपने से रोकने के लिए राजनीतिक नेतृत्व ने कोई ठोस प्रयास ही नही किये। आजाद भारत में एक दशक बाद ही साल 1961 में मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर को सांप्रदायिक दंगों ने जकड़ लिया था इसके बाद से अब तक न जाने कितने ही सांप्रदायिक दंगे हो चुके है। 1969 में गुजरात के दंगे हो या 1984 में सिख विरोधी हिंसा, 1987 में मरेठ शहर में दंगा जो दो महीने तक चलता रहा जिसमें कई निर्दोष लोग को अपनी जान गंवानी पड़ी। 1989 में भगलपुर का दंगा या 1992 -93 में हुए दंगे कितनी ही जान-माल की क्षाति उठानी पड़ी। 2002 के गुजरात दंगे और 2008 में कंधमाल की हिंसा या अभी पिछले एक महीने से सुलग रहा बरेली हो या फिर असम जिसमें लाखो लोग बेघर हो गए है।

सांप्रदायिक दंगों के कारण मानवता को इतना गहरा अघा्त लगता है कि उससे उबरने के लिए कई कई दशक लग जाते है। दंगों की चपेट में आए परिवारों का सब कुछ तहस नहस हो जाता है। रोज-रोटी की समास्या अलग से खड़ी हो जाती है। कंधमाल में चार साल पहले हुए दंगो के चलते हजारों घर जला दिये गए। यह सांप्रदायिक दंगे ईसाइयों और गैर ईसाई अदिवासियों के बीच हुए थे। दोनो ही वर्गो को जान-माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा। विदेशी लेखक माइकल पारकर ने अपनी पुस्तक ‘‘हारविस्ट ऑफ हेट -कंधमाल इन क्रॉसफायर’’ में इन दंगों के बाद लोगो के सामने खड़ी कठनाइयों और दंगा भड़कने के कारणों का जिक्र किया है।

सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय पाना और जीवन को दोबारा पटरी पर लाना बेहद कठिन होता है। सरकार एवं सरकारी मशीनरी मारे गए लोगों और हुए नुकसान की भरपाई के लिए मामूली मुआवजा देकर मामले से पीछा छुड़ा लेते है इसके बाद पीड़ितों का शोक-गीत सुनने वाला कोई नही होता। कंधमाल के ईसाई इस ममाले में थोड़े खुशनसीब निकले कि चर्च ने उनका जीवन दोबारा पटरी पर लाने के लिए राहत और पुर्नवास पर करोड़ों रुपये खर्च किये है। सरकार द्वारा दी जाने वाली बीस से पचास हजार की मदद के इलावा चर्च ने अपनी तरफ से तीस हजार रुपये प्रत्येक ईसाई परिवार को मुहैया करवाए है। कंधमाल हिंसा में पीड़ित ईसाई परिवारों के नाम पर चर्च संगठनों ने विश्व के कई देशों से अनुदान प्राप्त किये। कैथोलिक ले-मैन ने मांग की है कि प्रत्येक चर्च-कैथोलिक,प्रोंस्टेंट,इवैंजेंलिक और पेंटीकॉस्ट को कंधमाल में 2007 से अब तक किये गए खर्च का ब्योरा तैयार करने की जरुरत है। जाहिर है कि आर्थिक मदद करने वाली एजेंसियां और देश और दुनिया भर के लोग यह जानना चाहेंगे कि उनके दान किए धन से पीड़ितों को कितना लाभ हुआ। उल्लेखनीय है कि इन चर्चो ने दुनिया भर के ईसाई देशों से कंधमाल पीड़ितों के नाम पर इक्कठा किये गए धन का आज तक कोई लेखा-जोखा देश के सामने नही रखा है।

सांप्रदायिक हिंसा के दौरान और बाद में विभिन्न धर्मो-वर्गो की संस्थाए एवं राजनीतिक तंत्र अपने वर्ग के प्रभावित लोगों की सहायता के लिए सक्रिय हो जाता है वह अपने-अपने समुदाय के लोगों को लेकर राहत कैंप और उनके पुर्नवास की व्यवस्था करने के लिए धन संग्रह करने में जुट जाते है। सरकारे पीड़ितो से अपना पल्ला छुड़ाने के लिए इस तरह के धुव्रीकरण को शाह देती है जिससे हिंसा प्रभावित लोगो में आपसी भाईचारा पनपने की जगह और अलगाव बढ़ने लगता है। 2002 की गुजरात हिंसा और 2008 की कंधमाल हिंसा इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है।

क्या कारण है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में साप्रदायिकता की आग ठंडी होने के स्थान पर लगातार सुलगती ही जा रही है वह भी ऐसे देश में जिसका अपना कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। 42वें संविधान संशोधन द्वारा इसे और मजबूती दी गई है। इसके बावजूद कुछ राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता पाने के लालच में कुछ धर्मो एवं सांप्रदायों को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे है। कांग्रेस पार्टी ने अपने 84वें अधिवेशन में सांप्रदायिकता के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर हल्ला बोलने की घोषणा की थी लेकिन वह धरातल पर ऐसा करती कहीं दिखाई नही देती। पिछले साल बरेली में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर कई मुसलमान बुद्धजीवियों ने कांग्रेस की तरफ अुंगली उठाई थी। उनका मानना था कि सांप्रदायिक हिंसा में धर्म से ज्यादा राजनीति का रोल है।

हालही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने असम का जिक्र करते हुए कहा है कि सांप्रदायिक हिंसा देश की मिली जुली संस्कृति पर हमला है और इससे कड़ाई से निपटने की जरुरत है। आज जरुरत इस बात की भी है कि सरकार ऐसे सांप्रदायिक दंगो से निपटने के लिए एक विशेष ढांचा देश के नगरिकों की सहयता से खड़ा करे। यह दुखद है कि पिछले छःह दशकों से हम ऐसे किसी प्रयास की और नही बड़े है। हमने केवल राजनेताओं और कुछ गिने चुने मुठ्ठी भर (सवा करोड़ की आबादी में से डेढ़ सौ) लोगो को लेकर राष्ट्रीय एकता परिषद खड़ी कर ली है। जिसकी बैठक बुलाने में महीनों ही नही साल लग जाते है। सरकारी छत्रछाया में चलने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में भी ऐसे लोग भर दिये जिनकी कार्यशैली पर देश का बहुसंख्यक अंगुली उठा रहा है।

सांप्रदायिक हिंसा एवं दंगों से निपटने और विभिन्न सांप्रदायों, वर्गो, धर्मो एवं समूहों के बीच आपसी सौहार्द बनाए रखने के लिए जिला, ब्लाक, शहर, गांव स्तर तक की समितियां बनाई जानी चाहिए। ऐसी समितियों में शामिल किये जाने वाले व्यक्तियों को सरकारी तौर पर मानदेय उपलब्ध करवाया जाना चाहिए और उनकी प्राथमिकता अपने क्षेत्र में आपसी सौहार्द को बनाये रखना होना चाहिए। किसी भी देश के विकास के लिए परस्पर सांप्रदायिक सौहार्द का होना बेहद जरुरी है अगर हम अपने बजट का कुछ मामूली हिस्सा खर्च करके कोई ऐसा तंत्र विकसत करने में सफल होते है तो यह देश और समाज दोनो के हित्त में होगा।

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